अंधेरा फैला रही हैं ये मोमबत्तियां -----

  अंधेरा फैला रही हैं ये मोमबत्तियां ----- ----धीरेन्द्र शुक्ल
बात थोडी अटपटी लग सकती है लेकिन गौर से देखिये,यह सच लगेगा। जब भी किसी समस्या का विरोध फौरी तौर पर होता है उसके प्रति गंभीरता का भाव नष्ट होने लगता है या बहुत कम होकर नष्टप्राय हो जाता है। यही कारण है कि चाहे अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार निरोधक आंदोलन की बात हो या निर्भया के बाद देश  में उपजा कथित आक्रोश  हो मोमबत्तियों के साथ ही राख हो जाता है। सोच कर देखिये अगर अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति की आकांक्षा,गुलामी से मुक्ति की आकांक्षा अगर विरोध स्वरूप मोमबत्तियों से प्रकट होती तो क्या होता? किसी भी घटना की प्रतिक्रिया दो तरह से होती है-एक तात्कालिक और दूसरी दीर्घकालिक। अंग्रेज जानते थे कि उनके प्रति असंतोष है इसे समय रहते भांप लेने और एक भडास के तौर पर बाहर निकाल देने के लिए ही उन्होंने कांग्रेस का गठन किया था। यह अलग बात है कि गांधी के आने के बाद इस कांग्रेस ने अपनी तय की गई सीमाओं को तोडकर विरोध का इतिहास रचा,पर अंग्रेजों की सोच -समझ यही थी कि गुस्से को इकट्ठा न होने दिया जाए बल्कि उसे धीरे-धीरे निकालने दिया जाए।
यह विरोध का नपुंसक तरीका है,यह सुविधाजनक है,इसके लिए कुछ नहीं करना बस मोमबत्ती लेकर निकलना है,एकदम सुरक्षित। न इसमें इस बात का डर है कि पुलिस गिरफ्तार कर लेगी न इसका बात का डर है कि कोई केस लगेगा-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर!एकदम सुरक्षित । इस तरह का विरोध दिलों के भीतर उठ रही आग पर पानी डाल देता है। एक नहीं लाखों -करोडों लोग भी अगर मोमबत्ती लेकर विरोध के लिए निकल पडें तो किसी भी समझदार शत्रु पर इसका कोई फर्क नहीं पडेगा। इसकी तुलना में अगर संगठित विरोध भले ही एकाध -दो की संख्या में हो पर व्यवस्था की,अपने लक्षित शत्रु के वजूद की चूलें उखाड देता है,उसे समूल नष्ट भी कर देता है,इसीलिए भगतसिंघ एक ही होते हैं,सुभाष और गांधी भी। सोचिये!!! दक्षिण अफ्रीका में अपमान सहन करने के बाद अगर गांधी भी मोमबत्ती छाप विरोध करते तो क्या अजेय अंग्रेजी हुकूमत से टकरा  पाते?
नागपुर की याद है? अक्कू यादव नाम के एक बदमाश  को आदत थी क्षेत्र की महिलाओं के साथ चाहे जब ज्यादती करने की,जब किसी ने उनकी नहीं सुनी तो भरी अदालत में 200 महिलाओं ने जो कुछ हाथ में था उसे ही हथियार के रूप में इस्तेमाल करके उसे वहीं के वहीं मौत के घाट उतार दिया था। यह विरोध की एक सार्थक नजीर थी। जो लोग बलात्कार करके जघन्यतम रूप से हत्या कर देते हैं उनमें से अधिकतर अनपढ जाहिल होते हैं उन्हें कानून की थकाउ प्रक्रिया का न तो पता होता है  न ही उस पर विश्वास । ऐसे लोगों में कानून का भय भले न  हो लेकिन नागपुर जैसी नजीरें अगर बढ जाएं तो ऐसे लोगों को हरकत की यह भाषा जरूर समझ आएगी। कानून की नजर में यह बेशक अराजकतावादी नजरिया हो पर यह जरूरी है कि बलात्कार करने वालों को किसी भी कानून की परवाह किए बगैर जस्टिस ऑन द स्पाॅट करना चाहिये। यह गुस्सा जो ऐसी किसी घटना के बाद उबलता है उसे फैसलाकुन होना चाहिये। अगर सारे देश  में बलात्कार करने वालों को यदि इसी तरह त्वरित सामाजिक न्याय मिलने लगे और पूरे देश  में यह एक अघोषित नियम बन जाए कि बलात्कार किया तो मौत तुरंत ही तय है,समाज ऐसी हौलनाक मौत देगी कि रूह कांप जाए तो फिर इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि ऐसे और हर तरह के बलात्कारियों के हौसले पस्त हो जाएंगे,उनके चेतन और अचेतन मस्तिष्क में यह बात घर कर जाएगी कि ऐसी किसी भी हरकत का मतलब है खतरनाक मौत।
इसलिए ये मोमबत्तियां अंधेरे की साजिश  में शामिल  लगती हैं मुझे,अंधेरा फैला रही हैं ये मोमबत्त्तियां!!!!!
----धीरेन्द्र शुक्ल


Comments